छावा , कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्म अति-राजनेतिक माहोल को प्रभावीत करती है : जोन अब्राहम

By Mahtab Jack

“छावा” और “द कश्मीर फाइल्स” का राजनीति पर असर: ज़ोन का नज़रिया

हाल ही में आई एक ख़बर ने सोशल मीडिया और न्यूज़ चैनलों पर खूब हलचल मचा दी। चर्चा का मुद्दा है — “चावा” और “द कश्मीर फाइल्स” जैसी फिल्में, जिन्होंने सिर्फ़ सिनेमा तक सीमित न रहते हुए देश के राजनीतिक माहौल में भी अपनी गहरी छाप छोड़ी है। ये फिल्में महज़ मनोरंजन का ज़रिया नहीं रहीं, बल्कि ऐसे मुद्दे उठाती हैं जो समाज और राजनीति दोनों में बहस छेड़ देते हैं। आज हम बात करेंगे कि इन फिल्मों ने किस तरह माहौल को बदला और इसका असर कितना सकारात्मक या नकारात्मक रहा।


फिल्मों का ऐतिहासिक और सामाजिक पहलू

“द कश्मीर फाइल्स” ने कश्मीरी पंडितों के विस्थापन और उनके दर्द को बड़े पर्दे पर लाकर एक ऐसे अध्याय को दोबारा चर्चा में ला दिया, जो लंबे समय से दबी यादों में था। वहीं, “चावा” मराठा इतिहास और वीरता से जुड़ी कहानी है, जो देशभक्ति और बलिदान के रंगों से सजी है।
हालांकि, इन फिल्मों के बारे में एक सवाल लगातार उठता है — क्या ये पूरी तरह सच्चाई पर आधारित हैं या फिर किसी ख़ास राजनीतिक सोच को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई हैं?


राजनीतिक माहौल में हलचल

किसी भी सिनेमा का राजनीति पर असर हमेशा बहस का विषय रहा है, लेकिन “द कश्मीर फाइल्स” और “चावा” के मामले में यह असर और साफ़ दिखाई देता है।
“द कश्मीर फाइल्स” रिलीज़ होने के बाद देश में विचारों का ध्रुवीकरण तेज़ हुआ। कुछ लोगों ने इसे सच्चाई को सामने लाने वाली हिम्मती फिल्म कहा, तो कुछ ने इसे एकतरफ़ा कहानी बताने का आरोप लगाया। “चावा” के साथ भी यही हुआ — ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या को लेकर राजनीतिक दल आमने-सामने आ गए।
कई पार्टियों ने इन फिल्मों को अपने एजेंडे के लिए इस्तेमाल किया — समर्थकों ने इन्हें अपनी राष्ट्रवादी छवि के लिए हथियार बनाया, जबकि विरोधियों ने इन्हें इतिहास से छेड़छाड़ और पक्षपात का उदाहरण बताया।


दोनों पहलू — रोशनी और साया

इन फिल्मों की एक अच्छी बात यह है कि इन्होंने इतिहास और सामाजिक मुद्दों को नई पीढ़ी के सामने ताज़ा किया। इससे लोग अपनी जड़ों, संस्कृति और भूले-बिसरे किस्सों के बारे में जागरूक हो रहे हैं।
लेकिन, नकारात्मक पहलू भी नज़रअंदाज़ नहीं किए जा सकते। कहानी के कुछ हिस्सों में तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर दिखाने से ग़लतफहमियां बढ़ सकती हैं, और कभी-कभी ये फिल्में धार्मिक या सामुदायिक तनाव को हवा देती हैं — जो देश के लिए गंभीर चिंता का विषय है।


दर्शकों की जिम्मेदारी

फिल्म चाहे जितनी प्रभावशाली हो, दर्शकों पर भी जिम्मेदारी होती है। ज़रूरी है कि लोग इन फिल्मों को देखते समय तथ्यों की जांच करें और भावनाओं में बहकर नतीजे न निकालें।
स्कूल-कॉलेजों में ऐसे मुद्दों पर खुली चर्चा और डिबेट करवाई जाए, ताकि युवा पीढ़ी सही और गलत में फर्क कर सके।


निष्कर्ष

“चावा” और “द कश्मीर फाइल्स” ने भारतीय सिनेमा में नई लहर पैदा की है, लेकिन इनके राजनीतिक असर को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। सिनेमा में ताक़त है कि वह सोच बदल दे, लेकिन यह ताक़त तभी सही दिशा में जाएगी जब फिल्मकार और दर्शक दोनों जिम्मेदारी से काम लें।
अगर ऐसी फिल्में संतुलित और सच्ची कहानी कहने में सफल हों, तो वे न सिर्फ़ मनोरंजन करेंगी, बल्कि समाज को एकजुट करने का काम भी कर सकती हैं।